HASDEO FOREST – “क्या हम पर्यावरणीय आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं? आइए जानते हैं ‘कटता हसदेव, जलता भविष्य’ विशेष लेख अनुराग सिंह द्वारा।
(विशेष लेख – अनुराग सिंह, अंबिकापुर)
बीते कुछ सालों से छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य काफी चर्चा में बना हुआ है। “धान का कटोरा” कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ जो एक और संपूर्ण भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में परचम लहराने के साथ ही समूचे देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र वृद्धि वाला राज्य बन चुका है। वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़ राज्य का ही “हसदेव” जंगल अपनी आखिरी सांसे ले रहा है।
HASDEO FOREST – हसदेव अरण्य में में पाई जाती है सैकड़ों जीवों की प्रजातियां –
यदि आप नहीं जानते हसदेव के बारे में तो, कल्पना करें! एक ऐसे स्थान की जहां हरा भरा घास का मैदान है, जहां तक आपकी आंखें देख सकें वहां तक जंगल है, जो आपने कभी देखा सुना ना हो ऐसे पक्षियों की आवाज़ है, कई प्रकार की रंग बिरंगी तितलियां हैं, झुंड में नहाते हाथी हैं, पेड़ की छांव में आराम फरमा रहे भालुओं की विशाल संख्या है इसके अलावा स्वतंत्रता पूर्वक जीवन यापन कर रहे तेंदुआओं और भेड़ियों के अलावा सैकड़ों जीवों की कई प्रजातियां हैं। यदि आपने ये सब कल्पना कर लिया हो तो?
HASDEO FOREST – हसदेव का विकास या विनाश ?
बस ! अब ठहर जाइए! छत्तीसगढ़ के अरण्य “हसदेव” जंगल में आपका स्वागत है। इसी हसदेव को “मध्य भारत” का फेफड़ा भी कहा जाता है। हमारे शरीर में फेफड़े का क्या कार्य है? और हसदेव को फेफड़ा क्यों कहा जाता है? ये हमें नहीं लगता बताने की आवश्यकता है।
यह जंगल बिल्कुल आपकी कल्पना की तरह ही बेहद खूबसूरत है। पर अब यह जमीन जंग का मैदान बनने के लिए आतुर हो रहा है। सरकार और कॉरपोरेट ने इस सुंदर जंगल को बर्बाद करने की ठान ली है। हमें ये समझना होगा की हसदेव का विकास हो रहा है या विनाश ?
HASDEO FOREST – हर लिहाज से विशिष्ट हसदेव अरण्य –
हसदेव का नाश करने वालों का सामना यहां के आदवासियों से है। झारखंड में विकास के नाम पर आदवासियों के साथ जो हुआ वो सबके सामने है। और अब बारी हसदेव की है! हमारे आज के इस लेख में आपको जंग से ज्यादा जंगल के बारे में जानने को मिलेगा। अब फैसला आपके हाथ में है।
आपकी जानकारी के लिए स्पष्ट कर दें की! हसदेव, हर लिहाज़ से विशिष्ट है। यदि आप इंटरनेट पर हसदेव अरण्य लिखकर सर्च करेंगे तो आपको विकिपीडिया पर तीन बातें लिखी हुई मिलेंगी।
1.) हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित है।
2.) यह बहुत सघन जंगल है और आदिवासियों का जीवन इसी पर निर्भर है।
3.) एक पूंजीवादी कंपनी इसे खोदकर तहस नहस करने को तैयार है। जिसे सरकार ने ऐसा करने की मंजूरी भी दे दी है।
हालांकि इन तीन बातों के अलावा भी हसदेव अरण्य में बहुत कुछ खास है..
HASDEO FOREST – 3 हजार किस्म के पाए जाते हैं पेड़-पौधों –
हसदेव अरण्य भारत के सबसे पुराने जंगलों में से एक है। यह कितना बड़ा जंगल है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जंगल का क्षेत्रफल (2000 वर्ग किलोमीटर) दिल्ली , बेंगलुरु और मुंबई जैसे शहरों को मिलाकर पूरा हो पाएगा। यहां करीब 3 हजार किस्म के पेड़ पौधे हैं।
आपको स्पष्ट कर दें की यहां लगभग 3100 प्रकार की औषधियां मिलती हैं हजारों की तादाद में जानवर बसते हैं इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण है वो ये की यहां आज भी आदिवासी परिवार रह रहे हैं। जिनमें सबसे खास है पंडो और कोरवा। पंडो जनजाति, महाकाव्य “महाभारत” के ‘पांडव’ कबीले के सदस्य के रूप में खुद को विश्वास रखते हैं। कोरवा जनजाति, महाकाव्य महाभारत के ‘कौरव’ का सदस्य होने का विश्वास रखते हैं।
इतिहास के लिहाज़ से ये दोनों ही जनजातियां अहम हैं। और इनका संपूर्ण अस्तित्व हसदेव जंगल पर निर्भर है। और इन स्थानीय लोगों की पहचान और संस्कृति भी उनके गांव और हसदेव जंगल से ही जुड़ी है। जो हसदेव के कटने से पूरी तरह खत्म हो जाएगा। आदिवासी इस जंगल को ही अपना देवता मानते हैं। यहां के आदिवासी कहते हैं की हसदेव जंगल हमारे लिए बैंक की तरह है जब तक जंगल है हमारे लिए कभी खाने-पीने का संकट नहीं आएगा।
HASDEO FOREST – हसदेव अरण्य के कटने से बढ़ेगी समस्याएं –
हसदेव के कटने से, संपूर्ण छत्तीसगढ़ में मानव हाथी संघर्ष की घटनाएं बढ़ जाएंगी। बागों बांध के अस्तित्व पर भी संकट आ जायेगा। आपको बताते चलें की! हसदेव बांगो बैराज का कैचमेंट क्षेत्र है जहां से छत्तीसगढ़ के 4 लाख हेक्टेयर खेतों में सिंचाई की जाती है। इसके अलावा नदी, झरने हरे भरे पहाड़ों के तो कहने ही क्या! इन सभी स्थानों पर त्रासदी आ जायेगी।
आपको पता है ? जब तक छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब तक हसदेव सुरक्षित था। यदि यही सीधी तौर पर कहा जाए तो हसदेव, पूंजीवादियों की नज़रों से बचा हुआ था। लेकिन कुछ समय पहले इस जंगल के बारे में पूंजीवादियों को कुछ ऐसा पता चला की उसने रातोंरात इन्हें हसदेव आने पर मजबूर कर दिया। आइए अब जानते हैं इनकी नज़र हसदेव पर ही क्यों पड़ी?
HASDEO FOREST – हसदेव अरण्य की हरियाली के नीचे काला सोना –
दरअसल कुछ साल पहले ये खुलासा हुआ की हसदेव जंगल की हरियाली के नीचे काला सोना दबा है। काला सोना यानी कोयला। वो भी इतना (एक बिलियन मिट्रिक टन से ज्यादा) कि कई दशकों तक खुदाई की जाए तो भी समाप्त नहीं होगा। इस खुलासे के बाद पूंजीवादियों को, हसदेव की जमीन में सोना नज़र आ रहा है।
इस खुलासे से पहले ही हसदेव अरण्य को वर्ष 2009 में “केंद्रीय वन पर्यावरण एवं क्लाइमेट चेंज मंत्रालय” ने खनन के लिए “NO GO” क्षेत्र घोषित किया था। लेकिन दो साल बाद ही 2011 में तात्कालिक केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस क्षेत्र में 3 कोल ब्लॉक तारा, परसा ईस्ट, केते बासन को यह कहते हुए सहमति दी थी की इसके बाद हसदेव अरण्य में किसी अन्य खनन परियोजना को स्वीकृति प्रदान नहीं की जायेगी।
इसके बाद जंग शुरू हुई और वर्ष 2014 में माननीय नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने परसा ईस्ट केते बासन की वन स्वीकृति को निरस्त कर दिया। पर बात यहां थमी नहीं, केंद्र सरकार ने सारे कायदों को ताक पर रखकर खनन परियोजनाओं को स्वीकृति देना प्रारंभ कर दिया।
HASDEO FOREST – 40 गांव ने मिलकर बनाया हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति –
पूरे इलाके में कुल 20 कोल ब्लॉक चिन्हित हैं, जिसमें से 6 ब्लॉक में खदानों के खोले जाने की प्रक्रिया जारी है। इन परियोजनाओं में करीब 1862 हेक्टेयर निजी और शासकीय भूमि सहित 7730 हेक्टेयर वनभूमि का अधिग्रहण होना है। यानी ओपन कास्ट माइनिंग के लिए 2000 एकड़ में फैले जंगल का सफाया करना पड़ेगा। खुदाई होती है तो आदिवासी बेघर हो जायेंगे। और पर्यावरण को बहुत बड़ा नुकसान होगा। इसलिए हसदेव क्षेत्र के 40 गांव ने मिलकर हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति बनाई है। जो बीते 6 सालों से लगातार आंदोलन कर रही है।
HASDEO FOREST – हसदेव अरण्य से होता है आदिवासियों का जीवकोपार्जन –
आदिवासियों का कहना है कि ये जंगल उत्पाद और खाने की चीजें देता है। जैसे :- महुआ, साल, तेंदू पत्ता, चिरौंजी, खुखड़ी और लकड़ी (जंगल के उत्पाद जिनमें पत्ते , बीजें, मशरूम और आग के लिए लकड़ी शामिल है) तेंदू पत्ते से हर आदिवासी परिवार को सालाना 60000 से 70000 रुपए की आमदनी होती है। ऐसे में अगर जंगल बर्बाद हो गए तो इन परिवारों का क्या होगा ? क्योंकि इसके पहले भी आदिवासियों के पुनर्वास की खामियां सामने आ चुकी हैं। कहीं ऐसा न हो की सहरिया और बैगा जनजातियों की तरह ही इन्हें भी अपना घर द्वार खोना पड़े।
HASDEO FOREST – हसदेव अरण्य में हालिया स्थिति –
ग्रामीण बताते हैं की जंगलों की लगातार कटाई के कारण यहां रहने वाले जानवरों का जीना मुश्किल हो गया है वो बेघर होते जा रहे हैं। हसदेव की कटाई के कारण जानवर मारे जा रहे हैं और जो बच जा रहें हैं वो डर कर भागते फिर रहे हैं। ये जानवर इंसानों के तौर तरीकों से इतने खफा हैं कि वे भागकर गांवों के नजदीक आ रहे हैं, और ग्रामीणों पर हमले कर रहे हैं। खुदाई के लिए जिन परिवारों ने अपनी जमीनें दी थी वो अब पछता रहे हैं। क्योंकि बदले में उन्हें रोजगार नहीं मिला, जंगल और जमीन भी हाथ से निकल ही गए।
नई परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों का कहना है कि सरकार कह रही है की देश को कोयले की जरूरत है। हम उनसे पूछना चाहते हैं की! क्या देश को जंगलों, साफ पानी की, ताज़ी हवा की जरूरत नहीं है? यहां तो यहीं स्पष्ट होता नजर आ रहा है की एक ओर जहां विकास हंस रहा है वहीं दूसरी ओर हसदेव चीख रहा है।
HASDEO FOREST – बिजली बनाने हसदेव अरण्य का किया जा रहा खनन –
सरकार कहती है कि कोयले से बिजली बनेगी। पर सरकार के पास ये अनुमान नहीं है की उन्हें बिजली बनाने के लिए कितने कोयले की जरूरत है? यानी एक बार खुदाई शुरू हो गई तो कब थमेगी ये सुनिश्चित नहीं है। आदवासियों के सवाल लाज़मी है और उनका विद्रोह भी लाज़मी है। एक बार ज़रा ये सोचिए ! अगर राष्ट्रपति भवन के नीचे कोयला मिलने की उम्मीद हो तो क्या उसका भी खनन किया जा सकता है ? वैज्ञानिकों का दावा है की दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिए एक हजार अरब पेड़ लगाने की जरूरत है। इस बात का हमेशा ध्यान रखिए की, हसदेव जब जब चीखेगा हमारी सांसे तब तब फूलेंगी।
HASDEO FOREST – झारखण्ड और महाराष्ट्र में भी विकास के नाम पर तबाही –
एक हजार अरब पेड़ यदि वास्तव में लग जाएं तो वे 830 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेंगे और दुनियां जलवायु संकट के भयावह परिणाम से बच जाएगा। मगर असल में पेड़ लगाने और बचाने से ज्यादा कवायत इन्हें खत्म करने की हो रही है। झारखंड में विकास के नाम पर पर्यावरण की जो तबाही हुई वो हमारे सामने है। “महाराष्ट्र में बुलेट ट्रेन परियोजना 54 हजार मैंग्रोव के पेड़ों को खाने जा रही है”।
समुद्र तटों के लिए मैंग्रोव के जंगल बेहद महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इसके पहले मुंबई- नागपुर एक्सप्रेस के निर्माण के लिए 258 किलोमीटर के हिस्से में एक लाख पेड़ों को काटा जाएगा। आपको जानकर हैरानगी होगी की ब्राजील में प्रत्येक मिनट फुटबॉल के मैदान जितना एमेजॉन के जंगल को काटा जा रहा है। यानी ना तो हम सुधर रहे हैं ना दूसरे। क्या इन्हें क्षणिक विकास में भविष्य का विनाश नजर नहीं आ रहा ?
HASDEO FOREST – क्या हसदेव अरण्य का पूरी तरह उजड़ना तय है?
बहरहाल सरकार ने फैसला ले लिया है, पैसे वालों का जोर भी है तो हसदेव का उजड़ना निश्चित लग रहा है। वहीं हसदेव अरण्य को बचाने के लिए निहत्थे आदिवासी खड़े हैं जिनके पास ना तो योजना है ना साधन, पर उनके माथे का शिकन यह बताने के लिए काफी है कि ! ये आने वाले विनाश के लिए सूटबूट वालों से ज्यादा परेशान हैं। आपको हसदेव की हरियाली देखनी है तो अभी ही जाकर देख लीजिए क्योंकि खुदाई के बाद तो केवल धूल ही उड़ेगी।
आपको बता दें की एक पेड़ का कटना एक जीव हत्या के बराबर होता है। यहां तो लाखों की संख्या में पेड़ कट रहें हैं। और ये सब तब हो रहा है जब देश की राष्ट्रपति स्वयं एक आदिवासी परिवार से ताल्लुक रखती हैं। ऐसे में देश का भविष्य किस दिशा में जा रहा है इस पर गंभीर विचार करने की आवश्यकता है। सिर्फ धर्म और जात के नाम पर वोट देने से कुछ नहीं होगा।
हसदेव क्षेत्र में वनों की कटाई पर विचार करते हुए, इसके प्रभावों को समझकर आगे कदम उठाने की आवश्यकता है। यह केवल वनों की कटाई का मुद्दा नहीं है, बल्कि इसका हमारे सार्वजनिक और निजी जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। हसदेव के वनों की कटाई पर आपका क्या विचार है, और आप इसके संबंध में कैसी कार्रवाई कर रहे हैं? क्या आप इसे एक अलग मुद्दा मानते हैं, या इससे खुद को जोड़कर देखते हैं?
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